By
Maulana Wahiduddin Khan

Soulveda

जापान के लिए अमेरिकी लोग एक प्रकार से दुश्मन थे। दूसरी जंग-ए-अज़ीम (महायुद्ध) में अमेरिका ने जापान को शिकस्त दी थी। इस ऐतबार से होना यह चाहिए था कि जापानियों के दिल में अमेरिका के खिलाफ नफरत की आग भड़के, मगर जापानियों ने अपने आपको इस किस्म के मनफ़ी (वह क्रिया जिसमें काम का न होना) जज़्बात से ऊपर उठा लिया। यही वजह है कि उनके लिए यह मुमकिन हुआ कि वे अमेरिकी प्रोफेसर को अपने सेमिनार में बुलाएं और उसके बताए हुए फॉर्मूले पर ठंडे दिल से गौर करके उसे दिल-ओ-जान से कबूल कर लें।

जापानियों ने अमेरिकी प्रोफेसर की बात को पूरी तरह पकड़ लिया। उन्होंने अपनी पूरी इंडस्ट्री को क्वालिटी कंट्रोल के रुख पर चलाना शुरू किया। उन्होंने अपने इंडस्ट्रियलिस्ट (industrialist) के सामने जीरो डिफेक्ट (zero-defect) का मकसद रखा, यानी ऐसी पैदावार मार्केट में लाना, जिसमें किसी भी किस्म का कोई नुक्स न पाया जाए। जापानियों की संजीदगी और उनका डेडिकेशन (dedication) इस बात का ज़ामिन (दूसरे के कार्य का दायित्व अपने ऊपर लेने वाला व्यक्ति) बन गया कि यह मकसद पूरी तरह हासिल हो। जल्द ही ऐसा हुआ कि जापानी अपने कारखानों में बे-नुक्स सामान तैयार करने लगे, यहां तक कि यह हाल हुआ कि ब्रिटेन (Britain) के एक दुकानदार ने कहा कि जापान से अगर मैं एक मिलियन की तादाद में कोई सामान मंगाऊं तो मुझे यकीन होता है कि उनमें कोई एक चीज़ भी नुक्स वाली नहीं होगी। इसलिए तमाम दुनिया में जापान की पैदावार पर सद फीसद भरोसा किया जाने लगा।

अब जापान का व्यापार बहुत ज्यादा बढ़ गया। यहां तक कि वह अमेरिका के बाज़ार पर छा गया, जिसके एक माहिर की असलियत से उसने क्वालिटी कंट्रोल का फॉर्मूला हासिल किया था। इस दुनिया में बड़ी कामयाबी वह लोग हासिल करते हैं, जो हर एक से सबक सीखने की कोशिश करें, या वह उनका दोस्त हो या उनका दुश्मन।

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