स्रोत: Oct 2021इंसानों के दरम्यान तअल्लुक़ात क़ायम करने के लिए हमेशा एक उसूल दरकार होता है। एक ऐसा उसूल, जो अपने और ग़ैर के दरम्यान मुसावात (equation) के क़ियाम की बुनियाद बन सके। यह एक ऐसी ज़रूरत है, जिसके बग़ैर इंसानी समाज को मुनज़्ज़म करना मुम्किन नहीं होता। इस्लाम की तारीख़ में इब्तिदाई और मेयारी ज़माना वह है, जिसे पैग़ंबरी का ज़माना कहा जाता है। उस ज़माने में इंसानी तअल्लुक़ात की बुनियाद जिस उसूल पर क़ायम की गई थी, वह शाहिद और मशहूद (अल-बुरूज, 85:3) की बुनियाद थी। ये दोनों लफ़्ज़ शहादत (गवाही) से लिये गए हैं। शाहिद का मतलब है गवाह और मशहूद का मतलब है— वह, जिस पर गवाही दी जाए । शहादत से मुराद दावत है और शाहिद-ओ-मशहूद से मुराद वही चीज़ है, जिसके लिए दाई और मदऊ के अल्फ़ाज़ इस्तेमाल किए जाते हैं।मुसलमान और दूसरी क़ौमों के दरम्यान शाहिद और मशहूद की यह मुसावात रसूल और सहाबा के ज़माने में क़ायम रही। इसके बाद अब्बासी सल्तनत का ज़माना आया, जबकि दुनिया के बड़े हिस्से में एक मुसलमान एम्पायर क़ायम हो गया। अब शाहिद और मशहूद के दरम्यान क़ायम मुसावात टूट गई और नई मुसावात हाकिम और मह्कूम की बुनियाद पर क़ायम हुई। यही वह ज़माना है, जबकि मुसलमान फ़ुक़हा ने ‘दारुल कुफ़्र’ और ‘दारुल इस्लाम’ जैसे अल्फ़ाज़ ईजाद किए। इस मुसावात के तहत दुनिया को दो हिस्सों में बाँट दिया गया। मुसलमान अक्सरियत के इलाक़े ‘दारुल-इस्लाम’ बन गए और इसके मुक़ाबले में ग़ैर-मुसलमान इलाक़े ‘दारुल-कुफ़्र’ या ‘दारुल हर्ब’ क़रार पाए।
इस नाज़ुक वक़्त में मुसलमानों के साथ एक ट्रेजेडी पेश आई। वे हाकिम और मह्कूम के गुज़रे ज़माने की सोच से बाहर न आ सके। इसका नतीजा यह हुआ कि वे जदीद इकॉनमी की मेनस्ट्रीम में शामिल न हो सके।उन्नीसवीं सदी ईस्वी में यूरोप की ताक़तों (Colonial power) के ज़हूर के बाद यह मुसावात दोबारा टूट गई। अब मग़रिबी तहज़ीब के ग़लबे के तहत दुनिया में ‘डेमोक्रेसी’ का ज़माना आया। सियासत के जम्हूरी तसव्वुर के तहत हाकिम और मह्कूम की मुसावात बे-मायना क़रार पाई। इसने अपने हक़ में फ़िक्री बुनियाद खो दी। मुसलमानों और मग़रिबी क़ौमों के दरम्यान बारहवीं और तेरहवीं सदी ईस्वी में सलीबी जंगें (crusades) पेश आईं। इन जंगों में मग़रिबी क़ौमों को शिकस्त हुई, लेकिन इस शिकस्त ने उनके अंदर एक मुस्बत (positive) नतीजा पैदा किया। ये लोग इल्म के मैदान में सरगर्म हो गए, यहाँ तक कि मग़रिबी यूरोप में पंद्रहवीं और सोलहवीं सदी में वह वाक़िआ पेश आया, जिसे यूरोप की नशअते-सानिया (renaissance) कहा जाता है।इसके बाद मग़रिबी दुनिया में एक नया इंक़लाब आया। मग़रिबी क़ौमों ने तिजारत और सनअत (industry) के नए तरीक़े दरयाफ़्त किए, यहाँ तक कि अवामी पैमाने पर एक नई मुसावात क़ायम हो गई। यह ताजिर और ख़रीदार (trader and customer) की मुसावात थी। इस मुसावात का एक मुस्बत पहलू यह था कि इसके ज़रिये एक नया कल्चर वजूद में आया, जो ‘ख़रीदार-दोस्ताना कल्चर’ (customer-friendly culture) के उसूल पर मबनी था। यही कल्चर आज की दुनिया में अभी तक बाक़ी है।[Highlight2]इस नाज़ुक वक़्त में मुसलमानों के साथ एक ट्रेजेडी पेश आई। वे हाकिम और मह्कूम के गुज़रे ज़माने की सोच से बाहर न आ सके। इसका नतीजा यह हुआ कि वे जदीद इकॉनमी की मेनस्ट्रीम में शामिल न हो सके। इस पिछड़ेपन की क़ीमत मुसलमानों को यह देनी पड़ी कि वे मौजूदा ज़माने में दोहरे नुक़सान का शिकार हो गए।जदीद हालात से हम-आहंग (harmonious) न होने की बिना पर एक तरफ़ यह हुआ कि वे इक़्तिसादियात में दूसरी क़ौमों से पीछे हो गए। दूसरा इससे भी बड़ा नुक़सान यह था कि वे शऊरी या ग़ैर-शऊरी तौर पर डबल स्टैंडर्ड का केस बन गए। ज़ेहनी तौर पर वे दूसरी क़ौमों के बारे में मनफ़ी (negative) ख़्यालात रखते थे, लेकिन उनकी यह मनफ़ी फ़िक्र क़ाबिल-ए-अमल नहीं हो सकती थी। अपनी माद्दी ज़िंदगी (materialistic life) को बरक़रार रखने के लिए उन्हें उन्हीं क़ौमों से मिलकर काम करना था। दिली में वे इन क़ौमों के बारे में मनफ़ी ज़ेहन रखते हुए ज़ाहिरी ज़िंदगी में उन्हें उनके साथ समझौता करना पड़ा। इस तरह मुसलमान तारीख़ में पहली बार एक संगीन बुराई पैदा हुई यानी दिली तौर पर मनफ़ी राय रखते हुए अपने मामलात में उनके साथ समझौता करके अपनी माद्दी ज़िंदगी की तामीर करना। यह दोहरापन या डबल स्टैंडर्ड की सार्वजनिक हालत थी। इस क़िस्म का सार्वजनिक दोहरापन मुसलमानों की तारीख़ में इससे पहले कभी पेश नहीं आया। इस बुराई से बचने का वाहिद तरीक़ा सिर्फ़ एक है और वह है दौर-ए-अव़्वल की तरफ़ फ़िक्री वापसी यानी दौर-ए-अव्वल की तरह दोबारा मुसलमानों और ग़ैर-मुस्लिमों के दरम्यान दाई और मदऊ की मुसावात क़ायम करना। दाई और मदऊ की मुसावात ही इस्लाम के मुताबिक़ सही मुसावात है। इस मुसावात को दोबारा क़ायम करके मुसलमान मौजूदा दोहरेपन की बुराई से बच सकते हैं और इसी के साथ उम्मत-ए-मुस्लिमा होने की हैसियत से वे अपनी उमूमी ज़िम्मेदारी को अदा कर सकते हैं यानी दावत इलल्लाह की ज़िम्मेदारी।