प्रेम एक प्राकृतिक घटना है, यानि यह किसी के प्रति एक उच्च प्रकार की सकारात्मक प्रतिक्रिया है, जिसे आप प्रेम करने योग्य महसूस करते हैं। प्रेम को शून्य में नहीं पैदा किया जा सकता है, इसके लिए स्नेह के एक दृढ़ आधार की आवश्यकता होती है। ईश्वर से प्रेम इसी प्रकार का प्रबल स्नेह है। इस प्रेम का आधार पूर्ण रूप से प्राकृतिक है, जब कोई खोज पाता है कि उसे ईश्वर ने बनाया है और यह ईश्वर ही है, जिसने मानवजाति को पृथ्वी जैसा ग्रह, जीवन-समर्थन प्रणाली, ऑक्सीजन, पानी और भोजन इत्यादि जैसे उपहार दिए हैं। ये सब चीज़ें मनुष्य द्वारा नहीं बनाई गई हैं। वे किसी और द्वारा दिए गए अनमोल उपहार हैं। जब कोई इस तथ्य को जान लेता है, तो वह स्वाभाविक रूप से ईश्वर से प्रेम करने लगता है। इस प्रकार ईश्वर का प्रेम किसी की खोज का परिणाम है।
हर ईमानदार व्यक्ति जीवन में एक ऐसे मुकाम पर पहुंचता है, जब वह कुछ बुनियादी सवालों का सामना करता है, जैसे मैं अस्तित्व में कैसे आया? यह कैसे संभव हुआ कि मैं खुद को एक ऐसी दुनिया में पाता हूं, जो मेरे लिए बेहद अनुकूल है? किसी को यह एहसास होता है कि मनुष्य और शेष ब्रह्मांड के बीच यह संगतता इतनी अनूठी है कि ऐसा लगता है कि ब्रह्मांड को मनुष्य के लिए विशेष रूप से बनाया गया है। वास्तव में प्रेम इसी बात की स्वीकृति है। जब हम अपने परम परोपकारी को स्वीकार करने का प्रयास करते हैं, तो हम इसे ईश्वरीय प्रेम कहते हैं।
यद्यपि प्रेम एक आंतरिक भावना है और यह स्वाभाविक रूप से मनुष्यों को एक बाहरी अभिव्यक्ति देता है। ऐसा कहा जाता है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, इसलिए यह स्वाभाविक है कि किसी के आंतरिक प्रेम को सामाजिक संबंधों के संदर्भ में भी कुछ अभिव्यक्ति मिलनी चाहिए। यह किसी की आंतरिक भावना की सामाजिक अभिव्यक्ति है, जिसे शांति कहा जाता है। ईश्वर के संदर्भ में, प्रेम सृष्टिकर्ता की एक मनोवैज्ञानिक स्वीकृति है और समाज के संदर्भ में, प्रेम समाज के अन्य सदस्यों के बीच शांतिपूर्ण जीवन के रूप में अभिव्यक्त होता है।
यह पूछना प्रासंगिक (relevant) नहीं है कि यदि हम ईश्वर को नहीं देख सकते हैं, तो हम उसके प्रति अपने प्रेम को कैसे व्यक्त कर सकते हैं। यह तर्क परमाणु विज्ञान से पहले के युग में मान्य हो सकता था, लेकिन परमाणु विज्ञान के उत्थान (emergence) के बाद यह पूरी तरह से अमान्य है। परमाणु विज्ञान ने सफलतापूर्वक स्थापित कर दिया है कि इस दुनिया में कुछ भी अवलोकनीय (observable) नहीं है। उदाहरण के लिए, हर कोई अपनी मां से प्रेम करता है, लेकिन आधुनिक विज्ञान के संदर्भ में कोई भी अपनी मां को देखने में सक्षम नहीं है। किसी व्यक्ति की मां, इसके साथ ही अन्य चीज़ें और कुछ नहीं, बल्कि कई अवलोकनीय इलेक्ट्रॉनों का एक संयोजन है। वास्तव में, ‘मां’ एक अदृश्य आंतरिक प्राणी है, जिसे हम उसके बाहरी शरीर के संदर्भ में देखते हैं। इसी प्रकार ईश्वर इसी प्रकार की एक अदृश्य शक्ति है, जिसे हम उसकी सृष्टि के माध्यम से देखते हैं। ऐसी दुनिया में यह कहना तर्कहीन है कि कोई ईश्वर से प्रेम नहीं कर सकता, क्योंकि वह उसे देख नहीं सकता।
ईश्वर के प्रति प्रेम केवल एक दार्शनिक मुद्दा नहीं है, बल्कि यह मनुष्य के स्वभाव में निहित है। सच बात तो यह है कि अगर आपको किसी से कुछ अच्छी चीज़ें मिलती हैं, तो आप उसकी उदारता को स्वीकार करने के अलावा और कुछ नहीं कर सकते। इस अर्थ में ईश्वर का प्रेम एक प्राकृतिक घटना है। यह भी प्रकृति का एक नियम है कि यदि आप एक ग्लास पानी में एक चुटकी भर रंग मिला दें, तो सारा पानी रंगीन हो जाता है। यह सिद्धांत प्रेम के मामले में भी लागू होता है। जब किसी व्यक्ति के दिल में अपने निर्माता के लिए प्रेम होता है, तो स्वाभाविक रूप से अपने पड़ोसियों के लिए भी उसके दिल में प्रेम होता है और आज के इस इलेक्ट्रॉनिक युग में पूरी दुनिया हमारा पड़ोस है।
कोई भी कह सकता है कि प्रेम के दो आयाम हैं, सैद्धांतिक और व्यावहारिक। सैद्धांतिक दृष्टि से प्रेम का अर्थ ईश्वर के प्रति प्रेम है और व्यावहारिक दृष्टि से प्रेम का अर्थ सभी मनुष्यों के प्रति प्रेम है।